नयी दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने आत्महत्या के एक मामले में अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि टूटे हुए रिश्ते, चाहे भावनात्मक रूप से कष्टदायक हों, यदि आत्महत्या के लिए उकसावे का इरादा न हो, तो यह स्वतः “आत्महत्या के लिए उकसाने” के अपराध की श्रेणी में नहीं आते। जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने यह निर्णय सुनाते हुए कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया।
कर्नाटक हाई कोर्ट का फैसला पलटा
सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाई कोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया, जिसमें कमरुद्दीन दस्तगीर सनदी को आईपीसी की धारा 417 (धोखाधड़ी) और 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत दोषी ठहराया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “यह मामला टूटे हुए रिश्ते का है, न कि आपराधिक आचरण का।” सनदी पर आईपीसी की धारा 417, 306, और 376 (बलात्कार) के तहत आरोप लगे थे, लेकिन निचली अदालत ने सभी आरोपों से बरी कर दिया था। हालांकि, हाई कोर्ट ने इस निर्णय को पलटते हुए उसे पांच साल की सजा सुनाई थी।
क्या है पूरा मामला?
एफआईआर के अनुसार, एक 21 वर्षीय महिला ने 2007 में आत्महत्या कर ली थी क्योंकि आरोपी ने शादी का वादा तोड़ दिया था। महिला और आरोपी के बीच आठ साल का प्रेम संबंध था। मृतक की मां की शिकायत पर मामला दर्ज हुआ था। निचली अदालत ने सनदी को सभी आरोपों से बरी कर दिया था, लेकिन हाई कोर्ट ने इसे अपराध मानते हुए दोषी ठहराया और सजा सुनाई।
सुप्रीम कोर्ट का 17 पेज का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने महिला के मौत से पहले दिए गए बयानों का विश्लेषण करते हुए कहा कि उनके बीच शारीरिक संबंध का कोई आरोप नहीं था और न ही आत्महत्या के लिए किसी तरह का जानबूझकर किया गया कार्य था। अदालत ने कहा कि “टूटे हुए रिश्ते भले ही भावनात्मक रूप से परेशान करने वाले हों, लेकिन वे स्वतः आपराधिक कृत्य की श्रेणी में नहीं आते।”
आरोपी को दोषी ठहराना अनुचित
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी मामले में जब तक आत्महत्या के लिए उकसावे का इरादा स्थापित नहीं होता, तब तक आरोपी को दोषी ठहराना संभव नहीं है। अदालत ने स्पष्ट किया कि शादी से इनकार, भले ही वह लंबे रिश्ते के बाद हो, आत्महत्या के लिए उकसाने का आधार नहीं बन सकता।
न्यायालय का निष्कर्ष
कोर्ट ने कहा कि महिला की आत्महत्या के लिए ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं है जो यह दर्शाए कि आरोपी ने उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात पर जोर दिया कि समाज में घरेलू जीवन में कलह और मतभेद आम हैं, और केवल इन्हीं आधारों पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।