जयपुर। पुरातत्व विभाग में पोपाबाई का राज चल रहा है। यह बात हम यूं ही नहीं कह रहे बल्कि इसके पीछे ठोस कारण है। कमीशनबाजी के खेल में जब भी विभाग के अधिकारी फंसने लगते हैं, तभी उच्चाधिकारी उन्हें बचाने और दूसरों के सर पर दोष मढ़ने में लग जाते हैं। ऐसा ही कुछ हो रहा है कोटा आंवा के 1000 वर्ष से अधिक पुराने पोपाबाई और झालावाड़ के छन्नेरी-पन्नेरी मंदिर समूह के मामले में।
विभाग में कहा जा रहा है कि इन अति प्राचीन मंदिरों के मूल स्वरूप को बदलने के मामले में पुरातत्व निदेशक खुद अपने बुने मकड़जाल में फंस गए हैं और अब स्वयं व विभाग के अन्य अधिकारियों को बचाने के लिए ठेकेदार को बलि का बकरा बनाने की कोशिशों में जुट गए हैं। एक तरफ विभाग की ओर से ठेकेदार को पत्र लिख कर स्पष्टीकरण मांगा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर अपने ही वृत्त अधीक्षक और इंजीनियरिंग शाखा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है।
क्लियरन्यूज डॉट लाइव ने 22 फरवरी को ‘क्या पुरातत्व विभाग राजस्थान में चल रहा ‘पोपाबाई का राज’? हरे पत्थरों से बने 1000 वर्ष से भी पुराने पोपाबाई मंदिर का जीर्णोद्धार लाल रंग के सैंड स्टोन से कराया’, 23 फरवरी को ‘राजस्थान के पुरातत्व विभाग में पोपाबाई का राज : काम में नियमों की टांग न अड़े, इसलिए कर रहे तकनीकी अधिकारियों को साइडलाइन’, खबर प्रकाशित कर पुरातत्व विभाग में प्राचीन स्मारकों के मूल स्वरूप को बिगाड़ने के खेल का खुलासा किया था।
इन खबरों के बाद पुरातत्व निदेशक पीसी शर्मा ने 24 फरवरी को पत्र लिखकर मंदिर समूहों का मूल स्वरूप बदलने के मामले में ठेकेदार को घेरने की कोशिश शुरू कर दी है। पत्र में लिखा गया है कि संवेदक को 24 अगस्त 2018 को कार्यआदेश जारी किया गया था। इस कार्य में फर्म द्वारा नए पत्थर इस्तेमाल करने के संबंध में गठित तकनीकी समिति ने 8 अक्टूबर 2020 को कार्यस्थल का निरीक्षण किया और पाया कि नए पत्थर जी-शेड्यूल और मूल स्थापत्य के अनुरूप नहीं है।
इस कार्य में नए पत्थरों के अनुमोदन के संबंध में 12 नवंबर 2020 को लिखे पत्र में स्पष्टीकरण मांगा गया था लेकिन आपके द्वारा बताया गया कि नए पत्थरों का उपयोग वृत्त अधीक्षक और सहायक अभियंता के मौखिक अनुमोदन पर लगाए गए हैं। अनुबंध के अनुसार संबंधित प्रभारी अभियंता के लिखित निर्देशों को संपादित करना था, जो नहीं किया गया। बिना लिखित सहमति के नए पत्थरों का इस्तेमाल करना आपकी जिम्मेदारी है। ऐसे में नए पत्थरों को हटाकर कार्य आदेश के अनुसार निर्धारित अवधि में कार्य पूरा करें, अन्यथा नियमानुसार कार्रवाई अमल में लाई जाएगी।
इस पत्र के बाद अब पुरातत्व निदेशक के ऊपर ही सवाल खड़े हो रहे हैं। कहा जा रहा है कि जब कार्य आदेश 2018 में जारी हुआ तो पत्थरों के अनुमोदन के लिए समिति अक्टूबर 2020 में क्यों बनी? पत्थरों की जांच कार्य शुरू होने पर की जानी चाहिए थी, फिर जांच दो साल बाद क्यों हुई? क्या विभाग के अधिकारी दो साल तक सो रहे थे? जब अधिकारी लगातार साइट का निरीक्षण कर रहे थे, तो फिर नवीन पत्थर साइट पर पहुंचते ही कार्रवाई क्यों नहीं की गई? उसी समय कार्य रुकवा दिया जाता तो प्राचीन मंदिरों का मूल स्वरूप खराब नहीं होता। आखिर क्या कारण है कि अभी तक इस मामले की सूचना विभाग की शासन सचिव को नहीं दी गई? अधिकारी एक साल तक अंदर ही अंदर क्या खिचड़ी पका रहे थे?
ठेकेदार को काम के एवज में रनिंग बिल का भुगतान किया गया और वृत्त अधीक्षक ने रनिंग बिल के भुगतान के समय एनओसी दी। इसका मतलब है कि सारा कार्य अधिकारियों की सहमति से हो रहा था, तभी एनओसी दी गई। अब सवाल उठ रहा है कि बिना पत्थरों की जांच के ठेकेदार को रनिंग बिल का भुगतान कैसे कर दिया गया? जबकि ठेकेदारों को भुगतान निदेशक की मंजूरी के बाद ही होता है। इसका अर्थ यह है कि इस पूरे मामले में निदेशक खुद भी जिम्मेदार है।
निदेशक के पत्र में ठेकेदार को नवीन पत्थर हटाने के निर्देश दिए गए हैं। तकनीकी जानकारों के अनुसार यदि इन अति प्राचीन मंदिरों से नए पत्थरों को हटाया जाएगा तो पुराने पत्थरों को भी नुकसान पहुंचेगा। पुरातत्व नियमों के अनुसार किसी स्मारक को विद्रूपित करने, नुकसान पहुंचाना आपराधिक कृत्य की श्रेणी में आता है। नुकसान पहुंचाने पर 3 वर्ष का कारावास और एक लाख रुपए दण्ड का प्रावधान है। ऐसे में यदि नए पत्थर हटाए जाते हैं और नुकसान होता है तो कौन जिम्मेदार होगा।