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रंगों के त्योहार में हमारा रंग बदलना

होली की फुहारें..

होली के हुरियारे इस बार डरे-डरे से हैं। यह डर कुछ ऐसा है कि जैसे.. बचपन जब हम कोई शरारत तो करते ही नहीं थे, और कोई बड़ा बस यूं ही अपना रौब झाड़ने के लिए हमारे गाल गुलाबी करने के लिए थप्पड़ रसीद कर देता और हम रोते हुए घर के किसी और अधिक बड़े-बजुर्ग के पास शिकायत लिए जाते तो वह बड़ा-बुजुर्ग सांत्वना देने की बजाय यह समझाता कि..आखिर गये ही क्यों थे, उसके पास। यानी बस यूं ही किसी के शौक के लिए पिटे भी और गलती भी हमारी। होरी के हुरियारों को कोरोना ऐसे ही रुला रहा है। फगुनियाये हुए घर से बाहर निकले कि किसी बड़े ने कर दिये गाल गुलाबी और झाड़ दिया अपना रुआब..। ऐसे अजीबो-गरीब दौर में देश के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार अतुल चतुर्वेदी अपनी पिचकारी की धार से सराबोर कर रहे हैं।

रंगों के त्योहार में हमारा रंग बदलना

डॉ.अतुल चतुर्वेदी

  रंग बदलना हम सबका स्वभाव है। और यदि स्वार्थों के पुल बंधते हों निर्विघ्न सुविधाएं जारी रह सकती हों तो हम मिनट दर मिनट क्या सैकडों में रंग बदल सकते हैं । हर शहर का एक रंग होता है और एक खास पहचान , खांटी स्वभाव और तेवर । हमारे शहर के अंदर भी रंग बदलने की फितरत कुछ ऐसी ही अलहदा है । क्या राजनीतिक , क्या सामाजिक और क्या साहित्यिक हर क्षेत्र में रंग बदलने का यह विशिष्ट अंदाज फिजां में मौजूद है ।

 रंगे सियासत उर्फ कारसेवा

राजनीति हमारी रगों में है और उसका विशिष्ट अंदाज भी । राजनीति में परस्पर कारसेवा का बड़ा महत्व है । हम अपने हितों के लिए भले ही जागरूक रहें या नहीं लेकिन अपने प्रतिद्वन्दी की कारसेवा में कोई कसर नहीं छोड़ते । भले ही उसके लिए हमें हाईकमान तक से तार क्यों न बैठाने पड़ें । इस विषय में हमारे यहां का सिद्धान्त है कि हम तो डूबेंगे ही सनम तुमको भी ले डूबेंगे । या फिर आप कह सकते हैं कि हम भले ही रूखी सूखी खाएं लेकिन तुम्हारा भी रायता फैलाएंगे । रायता फैलाने के तो हम महारथी ही समझिए । दूसरे विरोधी का रायता फैलाने की कई शैलियां हमने विकसित कर रखी हैं । धुर विरोधी से हाथ मिलाने से लेकर धमकाने और ललचाने तक की । तोड़-फोड़ से लेकर जोड-तोड़ तक की । हमारे कुछ नेताओं ने तो इस विषय में बाकायदा मानद उपाधि तक धारण कर रखी है । हर मौहल्ले में कार सेवक हैं और परस्पर कार सेवा का शानदार माहौल भी । एक शानदार गौरवमयी परंपरा भी । सत्ता में हो या विपक्ष में कारसेवा का ये जज्बा सदा मौजूद रहता है । कारसेवा का ये सियासी रंग इतना गाढ़ा और चिपकू है कि वर्ष भर नही छूटता । एक बार आप भी लगा के तो देखिए ।

रंगे चमचागिरी यानि कि ऑलटाइम फेवरेट कलर

चमचा – भाई साहब , कब पधारेंगे मौहल्ले में ?

भाईसाहब – क्यों क्या है आज वहां पर ?

चमचा – अजी भाई साहब एक तो जागरण है नवयुवक मंडल का और दूसरा तीन चार तीये की बैठकें हैं ।

भाईसाहब – अरे तो तू ही दे आना तीये की बैठक में चिट्ठी । कोई खास है क्या …।

चमचा – हां भाई साहब एक तो अपना कार्यकर्ता था न शंटी उसी के पिताजी थे जो शांत हो गए । बाकी जागरण में तो आना ही है आपको.. मुख्य अतिथि हैं आप वहां पर ।

[चमचा दूसरे भाई साहब को फोन लगाता है ] – भाई साहब सुना आपने …आज मौहल्ले में रक्तदान शिविर लग रहा है, आप पधार जाते तो अच्छा रहता । थोड़ा कार्यकर्ताओं का मनोबल भी … और कुछ जनसंपर्क भी हो जाता लगे हाथ । भाईसाहब पीठ पर हाथ रख कर हां भर लेते हैं । चमचा खुश। उसका उद्देश्य पूरा हो गया है । उसे सभी भाईसाहबों की लिस्ट में रहना है बस । वो राधा का भी है और मीरा का भी । वो थाली का बैंगन है और खरबूजा भी। जो तुरंत रंग बदलने की कूवत रखता है। ऐसे होनहारों के भरोसे ही तो भाईसाहबों की राजनीति चल रही है । भाईसाहब तो डोली में सवार हैं , जब तक उठाने वाले कहार हैं तब तक काहे की चिंता। काहे की बैचेनी। रंगे चमचागिरी की खासियत यह है कि ये हर जगह , हर परिस्थिति में कारगर है । आप सरकारी मुलाजिम हों या निजी कारिंदें.. रंगे चमचागिरी की शोभा ही अलग है । इससे एक तो पाचन अच्छा रहता है दूसरे चेहरे पर कांति रहती है क्योंकि चमचे का तो स्वभाव हीं.. हीं.. हीं.. हीं और खीसें निपोड़न । उसे इसके बिना चैन कहां रे । मेरो मन अनंत कहां सुख पावे जैसे उड़ जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवै । चमचा स्वाभिमान की चिंता नहीं करता वो इन भावुक प्रश्नों में फंसा तो हो गयी चमचागिरी ।

रंग सरकारी अमले का अर्थात सब की जै जै

हमारे सरकारी कारिंदों को समय की गहरी पहचान है वो लिफाफा देखते ही मजमून भांप लेते हैं । जिसकी सत्ता आनी होती है उससे पींगे बढ़ाना शुरू कर देते हैं । आवश्यक संपर्क सूत्रों से मधुर संवाद और उनकी पूछ परख प्रारंभ हो जाती है। जो कल तक एक के खास थे आज उनको नमस्कार करना भी मुनासिब नहीं समझते । विवाह समारोहों में पहले वाले साहब मिल भी जाएं तो बचके निकल जाना ही बेहतर । कल तक उनके सम्मान में खड़े होते थे आज इनके सम्मान में खड़े हैं मालाएं लिए घंटों से । कल तक उनकी जीत की संभावनाएं टटोल रहे थे , आज इनकी बिरूदावली गा रहे हैं । रंग बदलने की ये खूबसूरत अदा हमारे सरकारी मुलाजिमों में बखूबी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है । पुरानी पीढ़ी अपनी ये विरासत और अनुभव नयी पीढ़ी को तमाम नयी हिदायतों के साथ सौंप जाती है । कैसे पोस्टिंग बचानी है , कैसे मलाईदार पदों पर बने रहना है आदि ।  इस लुप्त प्रायः कला के वे निष्णात हैं । जिधर दम उधर हम का सदा सर्वदा सिद्धान्त वे अपनाते आए हैं । रंग बदलने का ये कैमोफ्लैज उनके जींस में है या उन्होंने वातावरण से प्राप्त किया है, कहना मुश्किल है ।

सामान्यतः लोकतंत्र में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ होती है लेकिन हम तुम्हारी भी जै जै , हमारी भी जै जै में विश्वास रखते हैं । क्योंकि आपकी जै जै के बाद ही तो हमारी भी जै जै हो पाएगी । यूं सरकारी अमले का कोई रंग नहीं होता वो रंगपलट का खास पिगमेंट रखते हैं । अपने हितों पर खतरा देख वे लाज से लाल भी हो सकते है और आतंक से पीले भी और कभी कभी बेशर्मी से स्याह भी । वे खीसें भी निपोर सकते हैं , हिनहिना भी सकते हैं। लेकिन हुंकार का स्वर उनको कतई गवारा नहीं । वे सरकारी हैं , शुद्ध सरकारी यानी कि सिंहासन के सम्मान में खड़े चंवर साधक । उनको पुंपाड़ी बजानी है, दुंदुभी नहीं । वे ढोल बजाते आए हैं जिसकी सरकार उसकी उपलब्धियों के ढोल । जो बीत गया उसकी नाकामियों के ढोल । ऐसे विलक्षण ढोल वादक ही हैं, हमारे सरकारी अमले के कारिंदे ।

साहित्य का सदाबहारी रंग

साहित्य का रंग हमारे यहां सदाबहारी है अर्थात् गोष्ठी दर गोष्ठी वही कविताएं वही गीत । वही मंच वही साहित्य के अनुरागी , उनकी वही सदियों पुरानी फरमाइशें और फिर वही पुरानी टेक की पंक्तियां । यहां तक कि शुरू की भूमिका भी वही और चुटकुला भी वही । कश्मीर कितना भी बदल गया हो , चीन कितना भी आधुनिक हो गया हो । पाकिस्तान कितना भी शातिर लेकिन हमारा भोला भाला कवि अभी भी उसे वैसे ही ललकार रहा है । हमारे नेता भले ही उनके साथ झूले झूल रहे हो लेकिन हमारा कवि तो चीन को देख लेने की धमकी ही दे रहा है । कहानियां भले ही नई जमीनें तोड़ रही हों , नव यथार्थपरक समस्याओं को उठा रही हो लेकिन हम तो अभी भी देवरानी-जेठानी और लिजलिजे प्रेम की भावुक कथाएं ही रच रहे हैं । ये हमारे अदब का सदाबहारी रंग है । घिसे हुए समीक्षकों के पुराठे ठसके और भौंथरे पंच । रूठना, मनाना और अध्यक्षताई पा हरसाना । पुराने कवियों का पोथी दबाए महफिलों में दबे पांव आना । सब कुछ वैसा का वैसा ही । नयी हलचलों से दूर हमारा साहित्यकार ही है जिसने रंग नही बदला । हाइकू आया हो या हिन्दी गजल , यात्रा संस्मरण लिखे जा रहे हों या डायरी वो बेचारा अभी भी कुण्डलियां ही लिख रहा है । साली और देवर पर ही गीत बांच रहा है । नहीं बदला तो साहित्यकार और उसका धर्म । साहित्य को अपना धर्म बदलना भी नही चाहिए । आखिर वक्त की तेज हवा में वही तो है जो तेग हाथ में लिए हर युग में वंदे मातरम् कहता खड़ा रहा ।

रंगे मोहब्बत बोले तो कोचिंग जाने के बहाने …

मैं तुझसे मिलने आई , कोचिंग जाने के बहाने । पापा से झूठ बोली,  सर को दी गोली …। तू झूठ कहां बोली ? तू तो है भोली…। ये सब समय की मांग,  तू मेरा कहना मान । तेरा बाप लेगा पहचान, मुंह पर कपड़ा तान …फिर करते हैं प्रस्थान । जी हां ये है शहरे कोचिंग की एक झलक । रंगे नफरत के इस दौर में हमारे नौनिहालों ने प्यार के इस रंग को बखूबी जिंदा रखा है । बाइक पर फिल्मी अंदाज में आवारगी और पब्लिक पार्कों का रचनात्मक उपयोग यही नौजवान पीढ़ी कर रही है । पर्यावरण के प्रति उनका ये प्रेम ही है कि नव युगल ठिठुरते मौसम में ही अल सुबह आके बैंचों पर जम जाते हैं ।

चेंपा का प्रकोप हो या रात का अंधेरा मुंह पर रूमाल सदा उनके रक्षा कवच की तरह रखा रहता है। महंगे रेस्टोरेन्टों के निजी केबिनों में से आती उनकी शोख आवाजें कहती हैं कि शहर ये जवान हो गया है । गुल से गुलिस्तां हो गया है । अरे बागवानों इन्हें पहचानों ये हैं कौन ? ये तुम्हारे गोंडावण हैं या साइबेरियन क्रेन ? ये जलवायु बदलने आए हैं या कैरियर बनाने ? लेकिन क्या कहें जनाब रंगे मोहब्बत है ही ऐसा कि वो न जमाने की परवाह करता है न अपनी चिंता । उसे तो अहसास के गुलाबी रंगों में डूबना ही भाता है । भले ही आपके अंदर कितनी भी जाति – धर्म भेद की कल्मषताएं भरी हों ।

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