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क्या होगा युक्रेन का और कभी नेपाल युक्रेन की तरह चीन की तरफ झुके तो क्या करेगा भारत?

कभी सोवियत संघ का हिस्सा रहा युक्रेन पर जल्द ही रूस का कब्जा हो सकता है। जानकारी मिल रही है कि युक्रेन की राजधानी कीव में रूस की बख्तरबंद गाड़ियां घूम रही हैं और युक्रेन के राष्ट्रपति ब्लाडिमिर जेलेंस्की ने रूस को बाचचीत का न्यौता दिया है। रूस इस बातचीत के न्यौते को स्वीकार करता है या सरकार को गिराने को प्राथमिकता देता है, यह फिलहाल भविष्य के गर्त में है।

इन हालात के बीच सवाल उठता है कि युक्रेन की सहायता के लिए अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसी महाशक्तियां और नाटो देश केवल आगे क्यों नहीं आ रहे हैं? वे बयानबाजी और पाबंदियों तक सीमित होकर क्यों रह गये हैं ? क्या वे इस मामले में सीधे दखल देने पर अंजाम भुगतने की रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की धमकी से डर के चुपचाप बैठ गये हैं? आखिर क्यों युक्रेन अकेला क्यों पड़ गया है ? उसे अपनी लड़ाई अकेले क्यों लड़ने को बाध्य होना पड़ा है?

इन सारी बातों को समझने से पहले हमें यह समझना होगा कि युक्रेन की भौगोलिक स्थिति क्या है और क्यों रूस उससे नाराज चल रहा था? ऐसी क्या स्थितियां जिनके कारण रूस का आक्रमण उसे झेलना पड़ रहा है? इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि लगभग सवा चार करोड़ की आबादी वाला यूक्रेन भौगोलिक दृष्टि से रूस के बाद यूरोप का दूसरा बड़ा देश है। इसकी सीमा जहां एक ओर रूस से मिलती है, वहीं दूसरी ओर पोलेण्‍ड,  हंगरी,  रोमानिया और स्‍लोवाक जैसे उन देशों से मिलती है, जो रूसी खेमे के स्वतंत्र साम्‍यवादी राष्ट्र हैं।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 1917 में लेनिन के नेतृत्‍व में हुई सर्वहारा क्रांति ने रूस में राजाशाही (जारशाही) को समाप्‍त करके साम्यवादी (कम्‍युनिस्‍ट) शासन स्‍थापित किया था। इसके दो साल के बाद बहुत से देश संयुक्‍त सोवियत संघ (यूएसएसआर) में शामिल हुए, जिनमें यूक्रेन भी था। जब लियोनिड ब्रेझनेव रूस के राष्‍ट्रपति बने, तो उन्‍होंने अपने यहां खुलेपन की नीति को प्रोत्‍साहित किया। इसका नतीजा यह हुआ कि तत्‍कालीन यूएसएसआर नाम का यह देश सन् 1991 में 15 अन्य देशों के साथ अलग हो गया और इसका नया नाम हो रूस हो गया। रूस से अलग होने वाले उन 15 देशों में यूक्रेन भी एक था।

ध्यान दिला दें कि  जब यूक्रेन सोवियत रूस से अलग हुआ था,  उस समय क्रीमिया नामक क्षेत्र यूक्रेन के पास था। वर्ष 1954 में युक्रेन के रहने वाले यूएसएसआर के राष्‍ट्रपति लियोनेड ख्रुश्‍चेव ने क्रीमिया क्षेत्र युक्रेन को उपहार में दे दिया था। चूंकि युक्रेन को पूंजीवादी व्यवस्था राम आती थी और रूस की साम्यवादी व्यवस्था उसे बिल्कुल पसंद नहीं थी इसलिए उसने सोवियत यूनियन से अलग होना स्वीकार किया था। वर्ष 2014 में क्रीमिया की सीमा रूस से लगती थी। जब वहां तनाव की स्थिति बनी तो रूस ने क्रीमिया को अपने प्रभुत्व में ले लिया। निस्संदेह इससे युक्रेन में काफी नाराजगी थी और यह भय भी था कि कहीं रूस क्रीमिया की तरह उसे भी ना कब्जा ले। इन परेशानियों के मद्देनडर यूक्रेन ने घोषणा की हुई है कि वह वर्ष 2024 तक नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रिटी आर्गनाइजेशन ) संगठन का सदस्‍य बन जायेगा यानी यूक्रेन पर अमरीका व पश्चिमी यूरोप के देशों का दबदबा हो जाएगा।

इससे रूस की परेशानी यह है कि यूक्रेन का नाटो का सदस्‍य बन जाने के बाद नाटो की सेना रूस के बिल्‍कुल नाक के नीचे पहुंच जायेगी। रूस की राजधानी मास्को यूक्रेन की सीमा से करीब 90 किलोमीटर की दूरी पर रह जायेगा इसका अर्थ यह कि वहां से दागी गई मिसाइल मात्र पांच मिनट में मास्‍को तक पहुंच सकती है। दूसरी बात यह है कि इससे पहले पोलेण्‍ड और रोमानिया जैसे देशों में, जो किसी समय साम्‍यवादी राष्‍ट्र रहे थे, नाटो अपने इस तरह के अड्डे बना चुका है। इन परिस्थितियों के मद्देनजर रूस को युक्रेन की यह घोषणा कैसे ठीक लगती कि वह वर्ष 20214 तक नाटो का सदस्य बन जाएगा। यही वजह है कि रूस ने ऐसी किसी आशंका को खारिज करने के उद्देश्य से अपनी कथित शांति सेना को युक्रेन में उतार दिया है और वह वहां राष्ट्रपति व्लाडिमिर जेलेंस्की के नेतृत्व वाली युक्रेन सरकार का तख्ता पलट कर अपने पक्ष वाली सरकार स्थापित करने की कोशिश में है।

यद्यपि रूस जब यूक्रेन की सीमा सैनिक तैनात कर रह था तब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने यहां तक कह दिया था कि अगर यूक्रेन पर हमला हुआ तो नाटो सदस्य देश मिलकर रूस पर हमला करेंगे और इसके अंजाम बहुत बुरे होंगे लेकिन रूस इन धमकियों से पीछे नहीं हटा और उसने यूक्रेन पर सैन्य अभियान शुरू कर दिया। इसके बाद से अब तक न ही अमेरिका और न ही नाटो का कोई सदस्य देश रूस से सीधे टकराने की हिम्मत ही जुटा सका है।

नाटो के सदस्य यूरोपीय देशों का कार्रवाई नहीं करने के पीछे प्रमुख कारण इनकी रूस पर निर्भरता है। ये यूरोपीय देश ऊर्जा के लिए बहुत हद तक रूस पर निर्भर हैं। यूरोपीय संघ के कई देश, जो नाटो सदस्य भी हैं अपनी प्राकृतिक गैस आपूर्ति का 40 फीसदी हिस्सा रूस से प्राप्त करते हैं। ऐसे में अगर रूस गैस और कच्चे तेल की सप्लाई रोक देता है, तो यूरोप बड़े ऊर्जा संकट की कगार पर खड़ा हो जाएगा। बिजली व पेट्रोलियम उत्पादों के दाम तेजी से बढ़ सकते हैं और महंगाई आसमान छू सकती है। यही वजह है यूरोपीय देश सीधे तौर पर रूस से टकराने से हिचक रहे हैं। अमरीका का कहना है कि वह रूस पर कार्रवाई करने के मामले में अलग पड़ गया है।

यद्यपि अमेरिका व अन्य कई देश रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा रहे हैं किंतु रूस रुकने के लिए तैयार नहीं है। इन सारी रणनीति में एक तथ्य यह भी है कि पिछले कुछ सालों में रूस और चीन के बीच करीबी बढ़ी है। यह बात भी अमेरिका जानता है। वहीं अमेरिका पहले से चीन से दुश्मनी मोल ले चुका है। ऐसे में अगर रूस पर सीधे कार्रवाई की जाती है, तो निश्चित रूप से चीन रूस का साथ जरूर देगा। समूचे घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए उम्मीद की जा रही है कि भारत यानी विशेषतौर पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रूस के राष्ट्रपति पुतिन से बात करें और युक्रेन की बर्बादी को रोकने के लिए हस्तक्षेप करें। युक्रेन के राजदूद ने भारत से आग्रह भी किया है। लेकिन, भारत की स्थिति इस स्थिति में बहुत ही संभलकर कदम उठाने वाली हो गयी है। रूस भारत का पुराना दोस्त है और पिछले करीब एक दशक में भारत और अमरीका के बीच नजदीकियां भी बढ़ी हैं। मामले में सीधे तौर पर हस्तक्षेप देकर भारत अपने दोनों देशों के साथ दोस्ताना संबंधों पर आंच नहीं आने दे सकता है। इस बात को ऐसा भी समझा जाए कि यदि भारत का पड़ोसी देश नेपाल जिसके भारत के साथ सांस्कृतिक संबंध भी हैं, चीन को अपने यहां सैन्य अड्डे स्थापित करने की अनुमति दे दे, तो भारत की क्या स्थिति बनेगी  ? क्या भारत को रूस की तरह की वैसा ही कदम उठाना नहीं होगा जैसा कि उसने युक्रेन के विरुद्ध उठाया है?

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