जयपुरताज़ा समाचार

होली कैसी होली..

होली की फुहारें..

होली के हुरियारे इस बार डरे-डरे से हैं। यह डर कुछ ऐसा है कि जैसे.. बचपन जब हम कोई शरारत तो करते ही नहीं थे, और कोई बड़ा बस यूं ही अपना रौब झाड़ने के लिए हमारे गाल गुलाबी करने के लिए थप्पड़ रसीद कर देता और हम रोते हुए घर के किसी और अधिक बड़े-बजुर्ग के पास शिकायत लिए जाते तो वह बड़ा-बुजुर्ग सांत्वना देने की बजाय यह समझाता कि..आखिर गये ही क्यों थे, उसके पास। यानी बस यूं ही किसी के शौक के लिए पिटे भी और गलती भी हमारी। होरी के हुरियारों को कोरोना ऐसे ही रुला रहा है। फगुनियाये हुए घर से बाहर निकले कि किसी बड़े ने कर दिये गाल गुलाबी और झाड़ दिया अपना रुआब..। ऐसे अजीबो-गरीब दौर में देश के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – बीएल आच्छा अपनी पिचकारी की धार से सराबोर कर रहे हैं।

होली कैसी होली..

बीएल आच्छा

            होली भी कैसी होली है ? टेसू जरा खिले नहीं कि फगुनाहट उमगने लगती है। होरी में गोरी की तस्वीर आँखों में ऐसे मदमाती-सी खिल जाती है, जैसे पलाश की पूरी की पूरी डाल। रतनार आँखें। रंगों में भीगा तन, भीगा मन। रंगों की बुंदनियां चोटी से झरें। रंग सनी हथेलियां कपोलों को रंग जाएं। और गोरी की वह भंगिमा तो आंखों से काढ़े नहीं कढ़ती- ‘नैन नचाई, कहे मुसकाई, लला फिर आइयो खेलन होरी।’ ऐसे में मृदंग पर कोई थाप दे जाए, तो तन-मन होली के रंग में सराबोर हो जाते हैं।

            यों मन में वह गूंज अब तलक समाई है – ‘लला फिर आइयो खेलन होरी’ पर लला की हालत यह है कि नैन नचाई, कहे मुसकाई तो दूर की बात है । पत्नी को देखता हूं, तो यह मन में बसी गोरी भी हवा हो जाती है। पत्नी के सामने पड़ते ही प्रेयसी खिसक जाती है। फिर सोचता हूं, क्यों न, पत्नी को ही गोरी के रंगों में देखूं। रंगों में नहलाऊं। चोटी से रंग झरें। लाज लगे कपोलों को रंगों से गाढ़ा कर दूं। चूनर पलाश के रंग में खिल जाए। इन रंगों के भीतर गोरी का नेह छलक जाए।

            अपनी आंखों में पत्नी का यह गोरीनुमा पोर्ट्रेट बना ही रहा था कि एकाएक आवाज आई। मुझे लगा कि श्रीमतीजी भी होली के रंग में नैन नचाई, कहे मुसकाई मुद्रा में कुछ मीठे बैन बरसाएंगी। मगर वे तपाक से बोली – ‘इस बार क्या बजट बिगाड़ कर ही दम लोगे ? अभी मोहल्ले के छोकरे आये। पचास का नोट थमाया उनके हाथ। चंदे के लिए ज्यादा लेने पर तुले थे।’ बोले – ‘अंकल जी ने हमें सौ देने को कहा है।’ जैसे ही उन तरेरती आंखों को देखा तो पत्नी में उभर आई होली की गोरी हवा हो गई। इस गोरी की आंखों से थानेदार की सी डपट और वित्तमंत्री की सी सख्ती पटक रही थी।

            इस झटके के साथ जैसे ही मैंने पत्नी को असली रूप में पाया, तो धीरे से कहा -‘‘मैडम, होली कौन बार-बार आती है। और ये ठहरे बच्चे।’ बात काटते हुए मैडम ने कहा -‘देखोजी, इस घरेलू बजट में ये उदारवादी हवाएं मुझे नापसंद हैं। न जाने कितने टुल्लर आएंगे चंदा मांगने। लुटा दो सबको। फिर होली पर दोस्तों को भर-भर कर ले आओगे। जरा सोचो तो, कितनी महंगाई है। तुम हो कि जरा सी परवाह नहीं है।’ श्रीमतीजी ने डपटते हुए कहा।

            अजीब सा लगता है। न जाने क्यों मैं मन के हिंडोले पर झूलते हुए गोरी तक जाता हूँ, पर मिलती पत्नी है। होली का रंग ही बदरंग हो जाता है, पत्नी में गोरी को देखो, तो वह महज पत्नी होकर रह जाती है। फिर पत्नी में पत्नी को झांको तो वह घर की वित्तमंत्री नजर आती है। आखिरकार पत्नी ने हिदायत देते हुए कहा – ‘अब किसी को चंदा-वंदा देने की जरूरत नहीं है। मैं टरका दूंगी सबको।’ होली पर खुलने वाली इस चंदा-नहर के फाटक बंद हो गये, तो मैं आशंकित हो गया। अगर ये चंदा नहर इस देश में बंद हो गई तो मुफ्त में मल-मल कर नहाने वाले नहाएंगे कैसे ? देर रात तक चंदा-कटौती आशंकित करती रही।

            सुबह-सुबह ही पत्नी की आवाजें सुनाई दीं – ‘अजी सुनते हो। अपनी तो नेम प्लेट गायब है। छत पर सोफे के जो पुराने पाये रखे थे। वे गायब हैं। ये देखो दरवाजे पर कितना गोबर छींट रखा है। और ये देखो, दीवार पर ये क्या लिख गये हैं – ‘

                        रहिमन तहां न जाइए, जहां आंटी चंदा देय।

                        अंकल जी की ना चलै, आंटी चलता कर देय।।

            इस होलियारे नजारे को देखकर ठहाका मारने को जी हुआ। ये चंदेबाज भी कितने साहित्यिक हैं। पर कनखियों से पत्नी के चेहरे को देखा, तो धीरे से बोला – मैडम, चंदा दे दिया होता, तो ये नौबत न आती। होली पर तो चंदा इस तरह दे देना चाहिए, जैसे सड़क पर हाथ ऊंचा कर किसी कांस्टेबल को ट्रक वाले बीस का नोट थमा जाते हैं।’ श्रीमतीजी बोली – ‘तुम्हीं ने इन आवारा छोकरों को मुंह लगाया है।’ चुनाव, रैली, समारोह, त्योहार, अभिनंदन-सम्मान सभी में तो चंदा लगता है। अब ये छोकरे चंदे के पैसे से भंग के रंग में सराबोर हो जाएंगे तो क्या फर्क पड़ जाएगा। चंदे की भांग तो पूरे कुएं में घुली है। न जाने कितने लोग अपना कद ऊंचा करवा जाते हैं चंदे के बलबूते। चंदे के इस राष्ट्रीय उद्योग ने ही लोगों में कूट-कूटकर सामाजिकता भर दी है। अब होली हो या वीआईपी की लड़की की शादी, चंदा तो लग ही जाता है। पर पत्नी को कैसे समझाऊँ ? शांत करते हुए मैंने कहा – ‘अब पछताए होत क्या, होली सी हो ली।’

            इधर मित्रों की टोली आई। रंगों में नहाई। गुलाल उड़ी। बालों में रंग डाला। पानी की बाल्टियां सड़क पर नहला गई। तब कहीं भीतर से नाश्ता आया। लोग चालू हुए। किसी ने कहा – ‘भाभी, यह गुजिया तो साल दर साल छोटी हुई जा रही है।’ दूजे ने कहा -‘और यह बेसन की चक्की भी जरा पतली हुई जा रही है।’ मैं जरा छोटा हुआ जा रहा था कि श्रीमतीजी ने तपाक से उत्तर दिया – ‘देवर जी, गुजिया तो बड़ी ही बनी थी। पर एक चौथाई तो जीपीएफ में चली गई और बची-खुची इनकम टैक्स में। अब जो बची है, वह आपकी प्लेट में।’ मित्रों की टोली ठहाका मार गई। इस हाजिरजवाबी का खासा रुतबा जम गया।

            इधर जब से शहर में आया हूँ, तो तौर-तरीके बदले ही हैं। पर अब भी मेरा गंवई संस्कार जब जब तक कुलांचे मारता रहता है, होली के हुड़दंग में, मृदंग की थाप पर। हाथों में झांझ लिए, नाचने को जी मचलता है। तब सारे भेद मिट जाते हैं। पिचकारियां रंगों से तरबतर कर देती हैं सारे विकार मिट जाते हैं । तब देवर-भौजाई के गालों को लाल कर देता हैं। साली अपने जीजा को तरबतर कर देती है। मन का यह गंवई संस्कार आज भी कुलांचे भरता है इस पॉश कॉलोनी में। इस हुड़दंग में अपनी पड़ोसन भाभी को रंग क्या लगा दिया कि पहाड़ टूट पड़ा। भाई साहब की त्यौरियाँ चढ़ गईं। श्रीमतीजी ने देखा तो उनकी भौंहें तन गईं। अब मेरा गंवई मन थाने में चाहे जितनी सफाई दे, मगर सुनता कौन है ? भाई साहब मेरे अफसर होते तो मार्च के महीने में सीआर ही रंग देते लाल स्याही से। घर जाने पर मुझ पर क्या बीती और उधर उस पड़ोसन भाभी पर। फिलहाल इसे गोपनीय रख रहा हूँ। अब आप जो भी कहें, पर होली सो हो ली। गंवई संस्कारों की पगडंडी जब सीमेन्ट कंकरीट में जब बदलेगी, तब बदलेगी तब मेरी हुरियारी उमंग भी।

            होली के रंग भी कितना बदरंग कर देते हैं। आदमी साल भर चोला चढ़ाता है अपने भीतर के आदमी पर। कभी टाई पहनकर एकेडेमिक दिखने की कोशिश करता है, तो कभी पर्सनेलिटी बन जाने की। रौबीलेपन के चक्कर में अफसर चेहरे को ताने रहता है साल भर। अध्यक्षता की खातिर लोग चेहरे पर गंभीरता ओढ़े रहते हैं साल भर । न जाने कितने बगुले सफेद दिखने का अभ्यास करते हैं साल भर। न जाने कितने शिष्टता पहने रहते हैं साल भर। मगर इन चोलों की असलियत को जानने वाला कोई टोल आता है- ‘बुरा न मानो होली है।’ का आलाप करता हुआ। और एकाध फिकरा ऐसा कस जाता है कि देवता अपना चोला छोड़ देते हैं। सफेद बगुलों की दिखावटी भक्ति जगजाहिर हो जाती है। ऐसी कसक फूट पड़ती है, जो हंसी भी करवा दे और सामने वाले की बोलती भी बंद कर दे।

            अभी पिछली होली की ही बात है। इन फिकरों के मारे प्रिंसीपल साहब बुरा मान गये। यों भी उनका रौबदाब कम न था। प्रशासन बेल्ट की तरह कसा हुआ। पर उस साल वे अमरीका क्या हो आये कि रौब का एवरेस्ट चार फुट ऊँचा हो गया। लौटते ही अभिनंदन हुआ। संस्मरण सुने गए। हालत यह थी कि वे हमेशा हवाई जहाज में तैरते लगते थे। जब भी उन्हें इण्डिया में होने का कुबोध होता तो एक ही तकियाकलाम निकलता -‘अमरीका में ऐसा नहीं होता।’

सुनते-सुनते कान पक गये। होली पर लड़के साहब के बंगले पहुंचे। अधिकतर प्रोफेसर भी वहीं थे। होली के रंगों में साहब को इतना बदरंग कर दिया कि साहब खीझ गए। बोले -‘ये कैसी होली है।’ लड़कों ने लपक कर उत्तर दिया -‘ये इंडिया की होली है साहब, अमरीका में ऐसा नहीं होता। तब से साहब अमरीका और हवाई जहाज से खिसकर अपने देश की जमीन पर ही चलने लगे हैं।             और बिना भंग के होली के रंग? मित्रों ने इस नये शागिर्द को भी अपनी टोली में खुशी-खुशी शामिल कर लिया। यों थोड़ी ही भंग पी थी। पर पहली-पहली तरंग। देर रात जब घर लौटने लगा तो कुछ-कुछ भारी सा लगने लगा। अपनी गली पहचानी। पर मन तरंगायित था। आंखों  में जब अब भी वही ‘नैन नचाई, कहे मुसकाई’ वाली गोरी तैर रही थी।  जबान पर ‘लला फिर आइयो खेलन होरी’ के बोल फूटे जा रहे थे। अपनी गली भी पहचानी। पर किसी दूसरे घर पर ताला लगा देख आगे बढ़ गया। घूमते-फिरते एक-दो चक्कर लगाये। कुछ इस तरह जैसे बिहारी की प्रेमपगी नायिका अपने घर को भूलकर बार-बार प्रिय के घर जा पहुंचती थी। आखिर अपने मित्रों के यहां टिक गया।

वह बोला -‘तुम अभी तक घर नहीं पहुंचे।’ मैंने तरंग में कहा -‘घर पर ताला है।’ मित्र को अचरज हुआ। वह मुझे छोड़ने चल पड़ा। जैसे ही वहां पहुंचा, मैंने कहा -‘देखो, यह ताला पड़ा है घर पर।’ वह बोला -‘श्रीमान् यह आपका नहीं पड़ोसी का घर है, जिसका ताला देख-देख कर आप गोते खा रहे हैं।’ घर पहुंचा तो पत्नी दिखी। तरंग में समाई गोरी फिर खिसक गई। मैंने कहा न, आज सुबह से ही पत्नी में गोरी, गोरी में पत्नी, पत्नी में घर की वित्तमंत्री- ये सारे रूप इतने गड्ड-मड्ड हो रहे हैं कि इस तरंग में कुछ सूझ ही नहीं पड़ रहा था। श्रीमतीजी इस आधी रात को पूछ रही थी भंग की तरंग देखकर-‘यह कैसी होली ?’ कुछ सहमते हुए मैंने कहा -‘होली सो हो ली।’

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