धरम सैनी
पांच राज्यों के चुनावों में से तीन राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा नें बहुमत के साथ जीत हासिल की है। कहने को तो भाजपा कहती है कि वह जातिवादी राजनीति नहीं करती है लेकिन भाजपा ने इन तीन राज्यों समेत तेलंगाना में भी जातिवादी राजनीति करते हुए चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। अब यह जातिवादी राजनीति भाजपा के हलक में अटकी हुई है और उसे जीत वाले तीन राज्यों में मुख्यमंत्री बनाने में पसीने आ रहे हैं। ऐसे में अब भाजपा इस गणित में लगी हुई है कि किस जाति का मुख्यमंत्री बनाएं कि लोकसभा चुनावों में उन्हें कम से कम नुकसान हो।
राजस्थान विधानसभा चुनाव की बात करें तो यहां लगभग हर बड़ी जाति से कोई न कोई भाजपा नेता पिछले करीब एक—डेढ़ वर्ष से मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कर रहा था। चुनाव से पूर्व ब्राह्मण, बनिया, राजपूत, जाट, एससी और एसटी वर्ग से कई चेहरे सामने आए और उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताया गया। इसी तरह मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी सिंहासन जातियों और वर्गों के संकट में उलझा हुआ है।
अगर भाजपा जातिवादी राजनीति नहीं करने का दंभ भरती है तो भाजपा को पहले से ही ऐसे चेहरों पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए थी और उनके खिलाफ कोई कड़े कदम उठाने चाहिए थे। इस दौरान पूर्व मुख्यमंत्री ने भी पार्टी के खिलाफ जाकर अपनी दावेदारी पेश कर रखी थी, लेकिन भाजपा ने कभी कड़ाई से ऐसी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया। इसका अर्थ यही लगाया जा रहा है कि भाजपा हर वर्ग के चेहरों को आगे कर ज्यादा से ज्यादा वोट लेना चाहती थी, ताकि उनकी सरकार बन सके। अब भाजपा तीन राज्यों में चुनाव जीत चुकी है और उसके सामने अब सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह किस जाति के विधायक को मुख्यमंत्री का सिंहासन सौंपे।
राजनीतिक हलकों में कहा जा रहा है कि जो भी मुख्यमंत्री बनेगा, वह किसी न किसी जाति का प्रतिनिधित्व माना जाएगा। ऐसे में दूसरी जातियां भाजपा से दूर जा सकती है और लोकसभा में भाजपा के खिलाफ वोट कर सकती है। तीन राज्यों में मुख्यमंत्री घोषित करने की प्रक्रिया भी इसी वजह से लटकी हुई है। भाजपा अब तीनों राज्यों में सर्वमान्य नेता ढूंढने में जुटी हुई है ताकि उसे लोकसभा चुनावों में जातिगत राजनीति का खामियाजा न भुगतना पड़ जाए।