कनुप्रिया
बीकानेर की घड़सी सर गाँव मे एक निजी स्कूल चलाती हूँ। मुझसे पहले ये स्कूल मम्मी सम्भाला करती थीं, स्कूल को लगभग 35-36 साल हो गए हैं यानि गाँव की दूसरी पीढ़ी यहाँ पढ़ रही है। ज़्यादातर लोग फैक्ट्रियों में, दुकानों में काम करते हैं, टैक्सी चलाते हैं, किसी किसी की ख़ुद की दुकान है कुछ लोग पशुपालन करते हैं, कोई कोई चतुर्थ श्रेणी सरकारी नौकरी में हैं। मध्यम से लेकर निम्न आय वर्ग तक के लोग हैं। स्कूल माध्यमिक तक हिंदी मीडियम है और ज़्यादातर बच्चे मुसलमान, दलित या ओबीसी वर्ग के हैं ।
नोटबन्दी के बाद गाँव के कई लोग जो ठेके पर मजदूरी करते थे उनकी आय में कमी आई। ठेकेदार से समय पर पैसा नही मिलता यह शिकायत सुनने को मिलती रही, फिर लॉकडाउन के बाद दिक़्क़त और बढ़ी हुई है। कई लोग बच्चों की शिक्षा के लिये वज़ीफ़ा लेते हैं मगर बहुत से अभी तक नही भी लेते । सरकारी काम के अपने सर दर्द हैं, जितना समय घर का आदमी ये काम करने में लगाता है उतने में उसकी दिहाड़ी मारी जाती है, औरतें पढ़ी लिखी न होने के कारण ऐसे काम कर नही पातीं, और जो कर सकती हैं उनकी दिक़्क़त रहती है कि बच्चों को कहाँ छोड़ा जाए, कुछ लोग कई गुना पैसा किसी बिचौलिए को देकर आधार कार्ड तक बनवाते हैं । हमने अपनी तरफ़ से कोशिश करके भामाशाह कार्ड और विधवा पेंशन का एक शिविर लगाया था, मस्ज़िद और गाँव के सरकारी स्कूल में आधार कार्ड के शिविर लगे, डॉक्युमेंट कितनी बड़ी मुसीबत है ग़रीब अनपढ़ लोगों के लिए यह इनआरसी सीएए के लिए डाक्यूमेंट्स की डिमांड करने वाले नही जानते ।
उधर हमारी दिक़्क़त सबसे बड़ी यह है कि फ़ीस कैसे ली जाए, कुछ सालों में आसपास कई स्कूल खुल जाने से स्कूल की आय उतनी रही नही, बग़ल में सरकारी स्कूल है माध्यमिक तक, मस्ज़िद के पास एकाध स्कूल हैं और गलियों में छोटे छोटे बिना रजिस्ट्रेशन के स्कूल हैं।
गाँव के लोग जितना ख़र्च रीति रिवाज़ो और ब्याह शादी पर करते हैं उतना शिक्षा पर नहीं, लड़कियों का तो ब्याह ही करना है और लड़का कौनसा कलेक्टर बन जाएगा यह मानसिकता अगर है तो उसका लेना देना व्यवहारिक दुनिया से ज़्यादा है, फिर भी सरकारी स्कूल में पढ़ाई अच्छी नही होती तो निजी स्कूल में दाखिले की सोचते हैं। फ़ीस को लेकर साल भर खींचतान चलती रहती है, 2 महीने के लिये अगर बिहार से आया मज़दूर किसी त्यौहार या शादी पर गाँव गया तो सोचता है कि 2 महीने बच्चा स्कूल आया ही नही तो फ़ीस क्यों दें, स्कूल जितने दिन पढ़ाए उतने दिन की फ़ीस ले, ऐसे में मई जून की फ़ीस तक के लिये झखना पड़ता है।
कुछ बच्चे छुट्टियों में काम करके ख़ुद फ़ीस निकालते हैं और 2 बच्चों पर तीसरे बच्चे की मासिक फ़ीस माफ़ होने के गाँव के स्कूलों के पुराने नियम के चलते एक तिहाई बच्चे मासिक शुल्क से फ़्री होकर पढ़ते हैं ।
ऐसे में लॉक डाउन में 4 महीने स्कूल बंद होने के कारण फ़ीस निकालनी कितनी मुश्किल होगी यह अभी से नज़र आ रहा है, जबकि उससे पहले की फीसें ही नही आईं हैं, स्कूल के परमानेंट स्टाफ की तनख़्वाह अप्रैल से देनी बाक़ी है, क्योंकि स्कूल प्रबंधन मेरे हाथ मे है और हेड मास्टर मेरे द्वारा ही नियुक्त है तो मुख्य जिम्मेदारी मेरी बनती है कि सैलरी का भुगतान हो.
इस स्थिति में समझ नही आता कि अगर फ़ीस नही आई तो सैलरी कैसे दी जाएगी। सरकार की तरफ़ से कोई सहायता नही है। राजस्थान के मुख्यमंत्री ने मार्च से जून तक निजी स्कूलों द्वारा फ़ीस नही लिये जाने की अपील की थी, यदि उस अपील का अनुसरण करते हैं तो स्टाफ़ को तनख़्वाह कहाँ से दें और तनख़्वाह निकालते हैं तो पहले से ही घाटे में चल रही संस्था को कितने समय और चलाया जा सकता है समझ नही आता ।
हम ऑनलाइन शिक्षा का बहाना भी कर नहीं सकते जिसके कारण बड़े स्कूल लगातार फ़ीस वसूल रहे हैं क्योंकि गाँव मे ये सम्भव नहीं, महज फॉर्मेलिटी करनी हो तो बात अलग । ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा महज मध्यम आय वर्ग के लिये ही उपलब्ध होने वाली चीज़ है, इस तरह शिक्षा माध्यम से ग़रीब वर्ग का पढ़ना मुश्किल है ।
अभी इसी पशोपेश में पड़े हैं, राहत ये है कि पर्मानेंट स्टाफ से ठीक सम्बन्ध होने के कारण उन्होंने अब तक अपनी माँग ज़ाहिर की है दबाव डालना शुरू नहीं किया है । मगर बिना सैलरी तो वो भी रहेंगे नहीं, ऐसे में बच्चों से शुल्क वसूलने के सिवा कोई उपाय दिखता नही, जो कि कितना एथिकल होगा कितना नहीं मैं अभी यह फ़ैसला करने की स्थिति में नहीं।