कृषिपर्यावरणस्वास्थ्य

शहरी खेती स्वयं व पर्यावरण का बेहतर स्वास्थ्य विकल्प

बेंगलुरु। सदियों से, भारत में कृषि एक ग्रामीण गतिविधि रही है। किंतु हानिकारक रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों एवं खेती में अनुपचारित औद्योगिक तथा घरेलू अपशिष्ट जल के प्रयोग एवं इनसे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत परिणाम के चलते धीरे-धीरे कुछ शहरी लोगों में भी कृषि के प्रति रुचि जागृत होने लगी है और इस प्रकार “शहरी खेती” नाम की रचना हुई। बढ़ती जागरूकता के साथ शहरों में खेती का प्रचलन, भारत सहित, धीरे धीरे पूरी दुनिया में होने लगा है।

किचन गार्डन

पहले के समय में, गांवों में या छोटे शहरों में, कुछ लोग घरों में शाक वाटिका ( जिसे अंग्रेज़ी में किचन गार्डन कहते हैं) बनाते थे। किन्तु वह ज़्यादातर बुजुर्गों द्वारा या घर की महिलाओं द्वारा अपने खाली समय के सदुपयोग के लिए होती थी। लेकिन शहरी इलाकों में ताज़े, अच्छे और रासायनिक प्रभावों से मुक्त फ़ल और सब्जियों की कमी के चलते एक बार फिर लोगों में अपना भोजन उगाने के प्रति दिलचस्पी जागृत होने लगी है। किन्तु बदलते समय में बढ़ती जनसंख्या और अधिकांश लोगों के गावों से शहरों की ओर पलायन के साथ ही शहरों में ज़मीन की कमी हो गई है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई जैसे महानगरों में अब पहले की तरह खुले आंगन या बगीचों वाले घर ना के बराबर है। ज़्यादातर नए निर्माण बहुमंजिली इमारतों के होते हैं जहां लोगों के पास एक या दो बालकनी की जगह होती है। ऐसे में यदि कुछ साग सब्जी उगाई भी जाए तो वह घर की कुल खपत के अनुपात में बहुत कम होती है। 

वर्टिकल गार्डेनिंग

इन समस्याओं का हल है – हाईड्रोपॉनिक्स और खड़ी बागबानी (वर्टिकल गार्डेनिंग) । हाईड्रोपॉनिक्स एक ऐसी तकनीक है जिसमें पौधों को मिट्टी के बिना,आवश्यक पोषक तत्वों की सही मात्रा के साथ सीधे पानी में उगाया जाता है। क्योंकि इस तकनीक में सभी पोषक सही मात्रा में और बिना ऊर्जा खत्म किए पौधों को प्राप्त हो जाते हैं इसलिए मिट्टी में उगने वाले पौधों की तुलना में ये जल्दी बढ़ते है। खड़ी बागबानी, जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है, एक ऐसी प्रणाली है जिसमें पौधों को दीवार जैसी संरचना पर रोपित किया जाता है। इस प्रकार कम जगह में अधिक पौधे लगाए जा सकते हैं। 

हाईड्रोपॉनिक्स तकनीक

शहरी लोगों में कृषि और रसायन रहित ताज़ा उत्पादन के प्रति बढ़ते रुझान को देखते हुए इस क्षेत्र में कुछ संस्थानों का उदय हुआ है जैसे जयपुर स्थित द लिविंग ग्रींस, मुंबई स्थित अर्बन ग्रीन गेट (यू. जी. एफ.) फार्म्स एवम् हर्बिवोर फार्म्स, बंगलुरू स्थित बैक टू बेसिक्स, ग्रीन टेक लाईफ, स्क्वेयर फुट फार्मर्स तथा  ग्रोइंग ग्रीनस, दिल्ली स्थित खेतिफाई और एडीबल रूट्स, हैदराबाद स्थित होमक्रोप इत्यादि। ये सभी संस्थान शहरों में खेती करने के लिए सामग्री तथा परामर्श प्रदान करते हैं फिर चाहे वो आंगन में बागवानी हो, छत पर हो, बालकनी में हो या फिर हाइड्रोपोनिक तकनीक से नियंत्रित वातावरण में कमरे के अंदर हो। सरकारी स्तर पर बात करें तो तमिल नाडु सरकार शहरी लोगों में सब्जी की खेती के प्रति रुझान उत्पन्न करने के लिए  उन्हें सस्ती दरों पर किट मुहैय्या कराती है जिसमें हल्के वजन के गमलों के अतिरिक्त सब्जी उगाने की संपूर्ण सामग्री और अनुदेश पुस्तिका उपलब्ध कराई जाती है। सरकार का मानना है कि इस प्रकार ना सिर्फ सब्जियों की कीमतों में कमी आएगी और पर्यावरण में सुधार होगा बल्कि रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों रहित सब्जी उत्पादन में आत्मनिर्भरता के चलते लोगों को बेहतर पोषण प्राप्त होगा।

महानगरों में इसे लोकप्रिय और सफल बनाने के लिए जरूरी है कि जनता और सरकार दोनों की तरफ़ से  जरूरी कदम उठाए जाएं। घरों में लॉन तथा सजावटी या फूलों के पौधे लगाने की जगह साग – सब्जियां या फलदार वृक्ष लगाए जाएं। घरों तथा बहुमंजिली इमारतों की छत को बागबानी के लिए इस्तेमाल किया जाए। फ्लैट में रहने वाले सामर्थ्यवान लोग अपनी बालकनी या खाली कमरे में हाइड्रोपोनिक तकनीक के जरिए सब्जी उत्पादन के बारे में विचार करें। इसके अतिरिक्त एक ऐसी प्रणाली कि स्थापना करी जाए जिसमें इच्छुक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह, सरकारी या निजी, रिक्त भूमि को पट्टे (लीज) पर लेकर वहां सब्जियों का उत्पादन कर सकें। इस प्रक्रिया के जरिए उन दोनों वर्गों में सामंजस्य स्थापित हो सकता है जिनके पास खाली ज़मीन है पर कृषि के प्रति झुकाव या इसके लिए समय नहीं है तथा दूसरी ओर वे लोग जिनमें सब्जी या फ़ल के पेड़ पौधे लगाने की चाहत है किन्तु जगह का अभाव है। किन्तु इस प्रक्रिया पर बड़े व्यवसायियों के एकाधिकार से बचने के लिए यह भी निर्धारित किया जाए कि पट्टेदार उसी क्षेत्र या  कॉलोनी का हो। बिल्डरों को भी अपनी आवासीय परियोजनाओं में फ़ल तथा सब्जी उत्पादन हेतु अनुकूल स्थान उपलब्ध कराना चाहिए जहां सामुदायिक किचन गार्डन की स्थापना करी जा सके।

किन्तु इसमें ध्यान देने योग्य बात यह रहेगी कि यह प्रणाली शहरों की मौजूदा पानी की किल्लत को और अधिक ना बढ़ा दे। उसके लिए यह जरूरी होगा कि घरेलू अपशिष्ट जल का सही उपचार किया जाए एवम् इस उपचारित जल को ही कृषि के काम में लाया जाए। इसके अतिरिक्त, घरों में उत्पादन जैविक कचरे को कम्पोस्ट करके उसकी खाद बनाई जाए जिसे खेती के काम में लाया जा सके। इस प्रकार की एक समग्र प्रणाली के निर्माण से ना सिर्फ शहरी निवासियों को बेहतर गुणवत्ता की ताज़ी सब्जियां और फ़ल मिल सकेंगे बल्कि घरेलू अपशिष्ट का पुनर्नवीकरण संभव हो पाएगा जिससे मनुष्य और पर्यावरण, दोनों की सेहत में सुधार आएगा।

पढ़ने या सुनने में शायद विश्वास करना मुश्किल हो कि घनी आबादी वाले शहरों में खेती करी जा सकती है, वो भी एक इतने बड़े स्तर पर कि उससे वहां के निवासियों की जरूरत की पूर्ति करी जा सके। किन्तु यह पूर्णतः संभव है और क्यूबा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। ये वो देश है जहां सोवियत यूनियन के विखंडित होने और अमरीका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के चलते भोजन की अत्यधिक किल्लत ही गई थी। किन्तु अब इस देश में फ़ल सब्जियों की अभूतपूर्व आत्मनिर्भरता देखने को मिलती है। ऐसा होने में शहरी कृषि का बहुत योगदान है और वर्तमान में इस देश का 3.4% शहरी क्षेत्र कृषि के अन्तर्गत है। यही समय की मांग है कि शहरी लोग अपने पूर्वाग्रहों को त्याग कर, हर संभव स्तर पर भोजन उगाएं, स्वयं भी स्वस्थ रहें और पर्यावरण को भी बेहतर स्वास्थ्य प्रदान करें।

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