क्लियर न्यूज़ विशेष
छब्बीस नवंबर यानी वर्ष 2008 में हुए मुंबई हमलों का दिन। पाकिस्तान में रची गई इन हमलों की साजिश को भारत में दस आतंकियों ने अंजाम दिया था जिसमें 166 लोग मारे गए थे और 300 से अधिक घायल हुए थे। हालांकि हमले को अंजान देने वाले 9 आतंकी मारे गए थे और एक आतंकी अजमल कसाब जीवित पकड़ा गया था किंतु हमले को नाकाम करने में मुंबई पुलिस, एटीएस और एनएसजी के 11 लोग शहीद हो गए थे। बाद में आतंकी अजमल कसाब पर मुकदमा चला तो सरकार की ओर से मुकदमे की पैरवी की, विशेष लोक अभियोजक पद्मश्री उज्ज्वल निकम ने। उन्हीं निकम से क्लीयर न्यूज डॉट लाइव ने बातचीत की। पेश है निकम और राकेश रंजन के बीच हुई इस बातचीत के प्रमुख अंशः-
प्रश्नः- कैसे याद कर रहे हैं 26 नवंबर 2008 के मुंबई हमलों को?
उत्तरः- लोगों को लगता है कि मुंबई हमले के दौरान पकड़ा गया आतंकी अजमल कसाब को फांसी देने से पूरा न्याय मिल गया। लेकिन मैं इसे पूरा न्याय नहीं अधूरा न्याय ही मानता हूं क्योंकि नौ आतंकी मारे गए दसवां जिसे हमने पकड़ा उसे न्यायपालिका ने फांसी पर चढ़ा दिया। लेकिन, वास्तविकता यह है कि इस हमले साजिश करने वाले जो पाकिस्तान में छिपे बैठे रहे, वे कानून के दायरे से अब भी बाहर हैं। इसीलिए मैं हर बार जब भी 26/11 के मुंबई हमलों की बात करता हूं तो हमेशा चाहता हूं कि उन साजिश करने वालों के खिलाफ भी हमें न्याय दिलवाने में मदद करे।
प्रश्नः- क्या ऐसा नहीं लगता है कि न्याय की प्रक्रिया में विलंब हुआ?
उत्तरः- भारतीय न्याय व्यवस्था में देखें तो अजमल कसाब को फांसी दिलवाने में बिल्कुल भी विलंब नहीं हुआ। निचली अदालत ने 8 महीने में इस मामले में फैसला कर दिया था और फिर मामला उच्च न्यायालय में चला। कुल मिलाकर ढाई वर्ष में न्याय हो गया था। दुनिया में कसाब का मामला ऐसा पहला मामला था जिसमें किसी आतंकी को घटना के दौरान ही जीवित पकड़ा गया था। हमने अजमल के खिलाफ ओपन ट्रायल चलाई थी और पूरी दुनिया की निगाहें इस मामले पर टिकी हुई थीं। हमारा मकसद उसे फांसी पर चढ़वाना नहीं था। हमारा मकसद पाकिस्तान के चेहरे को बेनकाब करना भी था जिसमें हम काफी हद तक सफल रहे। पाकिस्तान ने शुरुआत में तो अजमल को अपना नागरिक ही मानने से इनकार कर दिया था किंतु बाद में उसे अपना नागरिक होना स्वीकार किया। पाकिस्तान को यह कहने का कोई मौका नहीं मिला कि उसके नागरिक को हमने बचाव का पर्याप्त मौका नहीं दिया।
प्रश्नः- अजमल को फांसी पर चढ़ाने का दबाव बनाने के लिए आपको, ‘ कसाब को मटन बिरयानी खिलाई जा रही है ’ जैसे बयान क्यों देने पड़े?
उत्तरः- नहीं, मैं क्यों किसी बात के लिए दबाव बनाता। अलबत्ता यह बात जरूर हुई थी कि कोर्ट में मैंने बताया, जेल में अजमल से बातचीत के दौरान कसाब ने मुझसे मेरी कलाई पर बंधी राखी के बारे में पूछा और रक्षाबंधन के महत्व के बारे में जानकारी ली। कोर्ट में जब यह घटना मैं बता रहा था तो अजमल की निगाहें नीची थीं। कोर्ट के बाहर आने पर जब मीडिया ने मुझसे बातचीत की तो मैंने इसी घटना का जिक्र किया तो मीडिया में इन बातों को कई तरह से पेश किया गया। कहा गया कि अजमल को बहन की याद आई, उसकी आंखों में पानी था। किसी ने सवाल किया कि कसाब ने क्या खाने की मांग की तो मैंने कह दिया कि उसने मटन बिरयानी मांगा। लेकिन, मीडिया में किस तरह इस बात को पेश किया गया, इसकी हकीकत या तो मुझे या कसाब को ही पता है।
प्रश्नः- क्या आपको लगता है कि मारे गए आमजन और शहीदों को न्याय दिला पाने में केंद्र या राज्य सरकार की ओर ढिलाई बरती जा रही थी?
उत्तरः– नहीं, बिल्कुल नहीं। मैंने कहा ना, हमारा उद्देश्य पाकिस्तान का चेहरा बेनकाब करना था। हम ट्रायल के माध्यम से दुनिया को भारत की न्याय व्यवस्था की मजबूती और पाकिस्तान की हकीकत को दिखाना चाहते थे। मैंने एफबीआई के विशेषज्ञ से इस मामले में वीडियो के जरिए बात नहीं की बल्कि उसे मुंबई बुलवाया।
प्रश्नः- फिर भी, आपको नहीं लगता कि मुंबई हमलों के आतंकी अजमल को फांसी की सजा सुनाए जाने और उस सजा को लागू करने में विलंब हुआ?
उत्तरः- मैं यह स्पष्ट कर दूं कि आतंकी और हत्या या बलात्कारियों के मामलों को समान नहीं समझना चाहिए। आतंकियों के विरुद्ध ट्रायल का होना और वह भी विदेशी आतंकी के खिलाफ ट्रायल होने का मतलब अलग ही होता है। बहुत कुछ नीतिगत मामले होते हैं जो आमजन के सामने नहीं लाये जा सकते। इसलिए मैं कहता हूं कि समय से न्याय हुआ और न्याय प्रक्रिया में पर्याप्त समय भी लगा। इसी वजह से दुनिया में हमारी न्याय व्यवस्था की साख भी जमी। दुनिया को हमारी न्याय व्यवस्था पर विश्वास भी पैदा हुआ।
प्रश्नः- अजमल की फांसी को इतना गोपनीय रखा गया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की प्रमुख सोनिया गांधी को पता नहीं चले, यह गोपनीयता कितनी उचित थी और क्या अजमल को फांसी की सजा पर्याप्त थी?
उत्तरः- अजमल को फांसी की सजा से अलग क्या सजा दी जा सकती थी। उसने कई निर्दोषों की जान ली थी, ऐसे में उसे फांसी से कम सजा हो ही नहीं सकती थी। यदि आजीवन कारावास की सजा हुई होती तो उसको छुड़ाने के लिए अन्य कई प्रकार के प्रयास हो सकते थे। जहां तक ऐसे मामलों में सजा लागू करने को गोपनीय रखने की बात है तो यह कोई आनंद के प्रदर्शन का मौका तो था नहीं और ना ही हमारी संस्कृति ऐसी है। ऐसा कोई प्रावधान भी नहीं है कि प्रधानमंत्री या किसी अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति को इस बारे में जानकारी दी जाती। जहां तक मेरी निजी जानकारी की बात है तो मुझे उसकी फांसी की तारीख की बात पता थी लेकिन उसके शरीर को कहां और कब दफनाया जाना है, यह जानकारी ना तो मैंने हासिल की और ना ही ऐसा करना मैं उचित समझता हूं। मैं तो बस 26 नवम्बर को हमेशा यही चाहता हूं कि इस दिन हुए आतंकी हमले को लेकर न्याय अभी अधूरा है और यह तभी पूरा होगा जबकि हमले के पीछे छिपे षडयंत्रकारियों के विरुद्ध कार्रवाई हो। पाकिस्तान इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। भारत को अधूरे न्याय को पूरा करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक करना ही चाहिए।