जयपुर। नगर निगम ग्रेटर के क्षेत्र में रहने वाले लोगों को अब आने वाले समय में काम के बजाय राजनीति ही झेलने को मिलेगी। जयपुर नगर निगम ग्रेटर में भाजपा का बोर्ड होने के बावजूद अब अधिकारियों की ज्यादा चलेगी। कांग्रेस और भाजपा की लड़ाई के बीच जनता पिस कर रह जाएगी, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाई देने लगे हैं।
राज्य सरकार ने गुरुवार, 25 फरवरी को संचालन समितियों के गठन के लिए नगर निगम ग्रेटर की ओर से भेजे गए प्रस्ताव को निरस्त कर दिया। इसके बाद यह तय माना जा रहा है कि नगर निगम हैरिटेज के साथ ग्रेटर में भी सरकार की ओर से ही समितियों का गठन किया जाएगा क्योंकि दोनों निगमों में बोर्ड बने 90 दिन से अधिक का समय हो गया है। इस अवधि के बाद सरकार ही समितियों का गठन करती है।
कहा जा रहा है कि ग्रेटर में अब महापौर भाजपा की तो चेयरमैन कांग्रेस के होंगे। समितियों के गठन में दिखाई गई जल्दबाजी बोर्ड को महंगी पड़ गई है। नियमों की अज्ञानता और जल्दबाजी के कारण समितियां नियमानुसार नहीं बनी, वहीं समितियों में कांग्रेसी पार्षदों को प्रतिनिधित्व नहीं देने, पार्षदों के बजाय बाहरी लोगों को सदस्य बनाने, एक समिति के चेयरमैन को दूसरी समितियों में सदस्य बनाने, कुछ पार्षदों को कई समितियों में शामिल किए जाने जैसे कारणों के चलते यह प्रस्ताव सरकार की ओर से निरस्त किया गया है।
सूत्रों का कहना है कि समितियों का निरस्त होना भाजपा के लिए एक बड़ी किरकिरी है। प्रस्ताव निरस्त होने के लिए महापौर के साथ-साथ संगठन को भी दोषी माना जा है। क्या संगठन के लोगों को भी नियमों का ज्ञान नहीं था कि समितियों का निर्माण किस तरह से होता है? इनके सलाहकार भी नौसिखिए निकले, जिन्हें नियमों का ध्यान नहीं था। नियम के अनुसार एक तय संख्या में समितियां बनाई जा सकती है, तो फिर क्यों ज्यादा समितियां बनाई गई? समितियां ज्यादा बनाई थी तो उनकी घोषणा से पहले सरकार से अनुमति लेनी चाहिए थी। सरकार के अनुमोदन के बाद ही समितियों की घोषणा की जाती है। बाहर से सदस्य लिए गए थे, तो नियमानुसार इसके लिए भी सरकार से मंजूरी लेनी चाहिए थी।
यह संयोग है या प्रयोग
उधर सियासी हलकों में चर्चा यह भी है कि आज जिन चेयरमैनों ने कुर्सी संभाली, उनके पूजा कार्यक्रम में महापौर सौम्या गुर्जर के साथ विधायक कालीचरण सराफ, नरपत सिंह राजवी और अशोक लाहोटी भी शामिल रहे। यह तीनों विधायक राजे गुट के माने जाते हैं। एक दिन पूर्व सराफ ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा पेश किए गए बजट की तारीफ भी की थी। अब सवाल खड़े हो रहे हैं, तो क्या यह संयोग नहीं प्रयोग था। क्या समितियों के प्रस्ताव निरस्त होने की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी। सूत्र अंदेशा जता रहे हैं कि कुछ तो खेल हुआ है क्योंकि भाजपा प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनियां ने पुराने विधायकों के खिलाफ कार्यकर्ताओं को निगम चुनाव में टिकट दिए थे और वे जीत कर चेयरमैन भी बने।
अब यह हो सकता है
जानकारों का कहना है कि प्रस्ताव निरस्त होने के बाद अब भाजपा पार्षद न्यायालय की शरण ले सकते हैं लेकिन इससे होने जाने वाला कुछ नहीं है क्योंकि राज्य सरकार को अधिकार है कि वह 74वें संविधान संशोधन में अपनी इच्छा से बदलाव कर सकती है। भैरोंसिंह शेखावत की सरकार के समय जब जयपुर में भाजपा का बोर्ड आया था, उस समय सहवरण पार्षद चुनने का नियम था, लेकिन ज्योति खंडेलवाल के समय जब बोर्ड भाजपा का आया था, तो कांग्रेस सरकार ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए सहवरण पार्षद का नियम हटा दिया और खुद ने पार्षद मनोनीत किए थे। ऐसे में अब सरकार ही समितियों का निर्माण करेगी, जिसमें कांग्रेसी पार्षद चेयरमैन होंगे और भाजपा पार्षदों को ज्यादा तवज्जो नहीं मिल पाएगी। सदस्यों का मनोनयन भी सरकार ही करेगी। सरकार अपने चहेते लोगों को भी पार्षद मनोनीत कर चेयरमैन बना सकती है।