People who made it BIG

एक सरदार का असरदार काम

गलाकाट प्रतिस्पर्धा के आज के दौर में कौन अपने गुर दूसरों को सिखाना पसंद करेगा लेकिन कुंदन-मीना के काम में कारीगरी के ख्यातनाम उस्ताद धर्मेंद्र सिंह उस शख्सियत का नाम है जो इस बात में यकीन रखता है कि अपने ज्ञान या कारीगरी के हुनर को जितना अधिक बांटोगे, वह उतना ही बढ़ता जायेगा। क्लियरन्यूज डॉट लाइव ने अपनी विशेष लेखों की श्रृंखला People who made it BIG के तहत इन्हीं धर्मेंद्र सिंह भल्ला  से विशेष बातचीत की। पेश है इस बातचीत के चंद अंश..

भल्ला लोगों की भलाई में यकीन रखते हैं और मानते हैं कि ऊपर वाले पर भरोसा रखकर खुद आगे बढ़ो और लोगों को सिखाकर आगे बढ़ाओ, उन्हें भी पैसा कमाने लायक बनाओ। जिसके हाथ में हुनर है, उसके पास काम झक मरा के आयेगा ही। यही वजह है कि 40 की उमर में वे सीधे तौर पर 45 लोगों को कुंदन-मीना के काम में पारंगत कर चुके हैं और वे 45 भी लोगों को आगे इस काम को आगे बढ़ाते हुए सिखा रहे हैं।

वक्त कितना भी खराब हो,  सच्चा सिख भिक्षा के लिए हाथ नहीं फैलाता

आभूषण को अंतिम रूप देते धर्मेंद्र सिंह

एक वक्त था जब सरदार धर्मेंद्र सिंह के हालात ठीक नहीं थे। खेलने-कूदने की उमर थी यानी जब वे आठ-दस बरस के ही रहे होंगे, उन्हें कुंदन-मीना का काम सीखने की शुरुआत करनी पड़ गयी। बड़े भाई दलेर सिंह जी से काम सीखा और जब उनकी नौकरी लग गई तो धीरे-धीरे उनका साथ भी छूटता चला गया। तब पारिवारिक स्थितियां ऐसी बनीं कि खुद ही पढ़ो, कमाओ और परिवार का भी ध्यान रखो। पिताजी भजन सिंह थे जरूर किंतु रीढ़ की हड्डी की समस्या के कारण बिस्तर पर ही थे। तब कुंदन-मीना के आभूषणों पर लगने वाले रत्नों को लगाने का काम करने पर इन नन्हें सरदार जी को पांच रुपये प्रति नगीना का मेहनताना मिलता। मेहनत करके कमाने का जज्बा रखने के कारण धर्मेंद्र ने कभी किसी के आगे हाथ नहीं पसारे।

भाई दिलेर सिंह रहे गुरु

फैक्ट्री में सहयोगियों के साथ सरदार धर्मेंद्र सिंह भल्ला (मालाएं पहने हुए)

धर्मेंद्र सिंह के दादा जी सरदार गोपाल सिंह जी लाहौर से जयपुर आये थे 1947 में और अपने साथ लाये थे कुंदन-मीना का विशेष हुनर। यहां काम जमाने की कोशिश कर ही रहे थे कि दो-तीन वर्षों में स्वर्गवासी हो गये। परिवार में अन्य लोग इस काम को आगे बढ़ा रहे थे किंतु धर्मेंद्र के पिता सरदार भजन सिंह जी पुश्तैनी काम की बजाय रत्न और जवाहरात के कारोबार में आ गये। जब वे बिस्तर पर आ गये तो घर की जिम्मेदारी स्कूल में पढ़ रहे धर्मेंद्र पर आ गयी। और, उन्होंने जो कुछ कुंदन-मीना का काम भाई दलेर सिंह जी से सीखा था, उसे अपनी रोजी-रोटी का जरिया बनाने की कोशिश की।

वक्त की ठोकरों ने बनाया काम-धंधे का ठाकुर

कुंदन-मीना के आभूषण की डिजाइन तैयार करते धर्मेंद्र सिंह भल्ला

धर्मेंद्र ने इस काम की बारीकियां सीखने के लिए इस काम में लगे अन्य लोगों से मदद की गुहार की तो कोई भी उन्हें काम सिखाने को तैयार नहीं था। कारण साफ था कि कोई भी अपना ही प्रतिस्पर्धी खड़ा करना नहीं चाहता था। धर्मेंद्र सिंह के धर्मखाते में ठोकरें ही लिखी थीं तो उन्होंने स्वयं को इन्हीं ठोकरों के लिए तैयार कर लिया। वे अपनी नाकामियों से सीखते चले गये। रब भी जिन्हें तराशना चाहता है, उन्हें वक्त की ठोकरों के हवाले कर देता है। शायद यही वजह थी कि ठोकरें खा-खाककर धर्मेंद्र का हुनर निखरता चला गया और उन्होंने तय कर लिया कि जिस तरह की काम न सिखाने की नकारात्मक परम्परा उनके कुंदन-मीना के काम में है, वैसी परम्परा वे कभी नहीं निभाएंगे। उन्होंने तय किया कि अन्य लोगों को अपने साथ जोड़ेंगे और उन्हें अपना हुनर सिखाकर, उन्हें भी कमाने लायक बनाएंगे।

निवेशक के गुण

धर्मेंद्र ने जब यह तय कर लिया कि अपना हुनर खुद तक सीमित नहीं रखेंगे बल्कि अन्य लोगों को भी सिखाएंगे तो उन्होंने सबसे पहले अपने ही स्कूल के एक दोस्त जिसे पैसों की सख्त जरूरत थी, को अपना कारोबारी साथी चुन लिया। अपने उस दोस्त को उन्होंने घर बुलाकर काम सिखाने और कमाने का प्रस्ताव दिया। दोस्त को यह प्रस्ताव जंच गया तो काम में एक और एक का साथ मिलने से काम की क्षमता बढ़ गई। फिर, उन्होंने अपने छोटे भाई राजेंद्र सिंह और दो-तीन दोस्तों को जोड़ लिया। इस तरह सभी काम सीखने और कमाने लगे। धर्मेंद्र बताते हैं कि यदि वे 100 रुपये कमाते तो 20 रुपये ही अपने घर पर खर्च करते और 80 रुपये धंधे में लगाते। इस तरह कुंदन-मीना की कारीगरी का काम आगे बढ़ता चला गया।

5 रुपये नगीना की मेहनत से 500 रुपये नगीने तक का सफर

अब तो लोग सरदार धर्मेंद्र सिंह के काम की मुंहमांगी की कीमत देने को तैयार रहते हैं

सरदार धर्मेंद्र सिंह का काम आगे बढ़ने लगा था। उनके हुनर के चारों ओर चर्चे थे। लोग नन्हें सरदार को काम करता देखने के लिए जयपुर के जौहरी बाजार की ‘घी वालों का रास्ता’ नामक गली में स्थित छोटी सी दुकान पर आया करते थे। पांच रुपये प्रति नगीना की मेहनत का मोल अब बढ़ने लगा था और काम भी। आज स्थिति यह हो गयी है कि सरदार धर्मेंद्र सिंह भल्ला की छोटी सी दुकान अब फैक्ट्री में तब्दील हो चुकी है। करीब 20 लोग इस फैक्ट्री में काम करते और सीखते हैं।

बकौल धर्मेंद्र उन्हें ईश्वर ने काम के लिहाज से कभी खाली नहीं रखा। उन्होंने जितनी मेहनत की उतना ही अधिक काम मिलता रहा और साख बनती गई। आज लोग धर्मेंद्र सिंह भल्ला के नाम से कुंदन-मीना के आभूषण तैयार करवाने के लिए आते हैं। पहले पांच रुपये प्रति नगीना कमाने वाले धर्मेंद्र आज यदि 500 रुपये प्रति नगीना मेहनताना चाहते हैं तो लोग खुशी-खुशी यह कीमत देने को तैयार रहते हैं।

सम्मान दर सम्मान

काम को मिला सम्मान

यद्यपि धर्मेंद्र सिंह पुरस्कारों के लिए काम नहीं करते लेकिन कुंदन-मीना के काम में यदि राजस्थान से किसी को सम्मानित करने की बात आती है तो सबसे पहला नाम धर्मेंद्र का ही रहता है। उन्हें पिछले दिनों ही सिख समाज की ओर से ‘ समाज रत्न’ से सम्मानित का गया है। जड़िया सिख समाज (स्वर्णकार) वेलफेयर एसोसिएशन के सम्मान के अलावा वे अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मान पा चुके हैं। उन्हें भारत सरकार के कपड़ा मंत्रालय की ओर से वर्ष 2011 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।। इसके अलावा कंसोर्शियम ऑफ वीमेन एंटरप्रिन्योर्स ऑफ इंडिया ने 2017 और 2020 में उन्हें भारतीय पारम्परिक उद्योग में अतुलनीय योगदान देने के लिए सम्मानित किया।

वो अनूठी अंगूठी जिसकी कीमत 4.85 करोड़ है

अंतरराष्टीय स्तर पर वे वर्ल्ड क्राफ्ट काउंसिल से वर्ष 2014 में दि सील ऑफ एक्सिलैंस और 2018 में अवार्ड फॉर एक्सीलैंस फॉर हैंडीक्राफ्ट्स के लिए सम्मानित हो चुके हैं। धर्मेंद्र ने पिछले दिनों एक विशेष अंगूठी तैयार की है जिसमें सोने को गलाये बिना शुद्धतम रूप में तैयार किया गया है। इसकी कीमत 4.85 करोड़ रुपये है। कोरोना काल में तैयार की गई इस विशिष्ट कोरोना रिंग के लिए उन्हें यूनाइटेड किंगडम में वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड्स 2020 में शामिल करते हुए स्टार 2020 सम्मान से भी नवाजा गया है। ये सम्मान और ये पुरस्कार वास्तव में वो नगीने हैं जो धर्मेंद्र नाम के कुंदन में निरंतर जड़ते ही जा रहे हैं और निखर रहा है भारत का यह विशिष्ट भूषण।

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