जयपुर

बैंकिंग ही नहीं, संपूर्ण व्यवस्था का पर्दाफाश करता हास्य उपन्यास ‘बैंक ऑफ पोलमपुर’

वेद माथुर जाने माने पत्रकार, स्तम्भकार, विश्लेषक व लेखक हैं जिनके सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों पर समसामयिक आलेख विशिष्ट होते हैं, खासा प्रभावित भी करते हैं; इन्हीं का चर्चित हास्य-व्यंग्य उपन्यास- ‘बैंक ऑफ पोलमपुर’ पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ जो व्यंग्यात्मक लेखन के कारण अनुपम बन पड़ा है।

डॉ अखिलेश पालरिया
कथाकार/कवि/समीक्षक
एवं संयोजक
शब्द निष्ठा सम्मान

42 अनुच्छेदों में लिखा गया 293 पृष्ठीय उपन्यास बीच-बीच में रामबाबू माथुर कृत मनमोहक 43 व्यंग्य चित्रों से सुसज्जित है जो पाठक को आकर्षित करते हैं। उपन्यास के कवर पृष्ठ के भीतरी फ्रंट फ्लैप पर सुप्रसिद्ध हास्य अभिनेता राजू श्रीवास्तव की टिप्पणी मन को गुदगुदाती है। उनके कथन- “एक बैंक की शाखा में ‘जेबकतरों से सावधान’ का बोर्ड देखकर ग्राहक हँसते-हँसते लोटपोट हो गया” – यही भारतीय बैंकिंग की मौजूदा स्थिति का सारांश है। उपन्यास के मैटर का एक पंक्ति में साक्षात्कार करवा देती है।

उपन्यास के अन्तिम आभार पृष्ठ पर लेखक के कुछ परिचित तो कुछ पारिवारिक नामों की झांकी रोचक अंदाज में है।

उपन्यास का कथानक व्यंग्यात्मक एवं रोचक बन पड़ा है जो मुख्य पात्र कश्मीरी लाल चावला की जुबानी है। उपन्यास शीर्षक ही कथा-वस्तु का दिग्दर्शन करा देता है। लेखक स्वयं पंजाब नेशनल बैंक में लंबी सेवावधि के बाद महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं, साथ ही पत्रकारिता के बाद लेखन से भी जुड़े रहे अत: अपनी सशक्त लेखनी से दमदार उपन्यास रचने में सफल हुए हैं और उपन्यास में वर्णित पात्रों के माध्यम से बैंकों के कामकाज की कलई खोलते प्रतीत होते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह अमूमन सत्य की कसौटी पर ही आधारित है।

उपन्यास के कथानक को निम्न उद्धरणों से समझा जा सकता है:

“लगभग अड़तीस साल पहले बैंक कर्मियों की वैसी ही दादागिरी चलती थी जैसी आजकल बैंक ग्राहकों की चलती है।” (पृष्ठ 20)

“आज स्थिति यह है कि कोई भी बैंक कर्मी नहीं चाहता कि उसके बच्चे बैंक की सेवा में आएं।” (पृष्ठ 21)

“गंगापुर ब्रांच का हर कर्मचारी दिन-रात ग्राहकों को भगाने के लिए कड़ा परिश्रम करता था लेकिन फिर भी ब्रांच का बिजनेस तेजी से बढ़ रहा था क्योंकि प्रतिस्पर्धा के लिए दूसरे बैंक नहीं थे, ग्राहक सरकारी महकमों में धक्के खा-खाकर और चप्पलें घिस-घिसकर इतने संतोषी हो गए थे कि वे हम बैंककर्मियों के अवगुणों को अपने दिमाग में एवं अपने अपमान को दिल पर नहीं लेते थे।” (पृष्ठ 30)

अकर्मण्य स्टाफ के सम्बन्ध में निम्न व्यंग्य सन्दर्भ भी द्रष्टव्य हैं:

“बहता पानी शुद्ध रहता है- यह कहावत चरितार्थ करते हुए गंगापुर में पुराने बाबुओं का समूह वास्तव में सड़ाँध मार रहा था।” (पृष्ठ 31)

बैंक में पता नहीं चलता था कि यहाँ कौन चपरासी हैऔर कौन अफसर। सभी चपरासी पूरी शान और अपनी शर्तों पर नौकरी करते थे जबकि अफसर अपना स्वाभिमान घर छोड़कर आते थे। (पृष्ठ 38)

बैंक में मैनेजर फकीर, डिप्टी मैनेजर नौकर, क्लर्क वज़ीर और चपरासी बादशाह होता है। (पृष्ठ 42)

उपमा अलंकार युक्त निम्न उद्धरण की बानगी देखिये:

मैनेजर श्याम सुन्दर अरोड़ा व्यवसाय वृद्धि के लिए इतनी उछल-कूद करते थे जैसे कोई अच्छा फुटबॉल खिलाड़ी हर क्षण गोल करने के लिए करता है। हालांकि कर्मचारी उसके प्रयासों का यह कहकर उपहास उड़ाते थे कि अरोड़ा दिन भर बिना कारण ऐसे उछलता रहता है जैसे भड़भूँजे की भाड़ में चना। (पृष्ठ 30)

इसमें कोई शक नहीं कि बैंक हों अथवा अन्य कोई उपक्रम, हर जगह कुछ अच्छे तो अन्य बुरे कर्मचारी होते ही हैं। आज के युग में भ्रष्टाचार सर्वव्यापी होने के बावजूद कुछ बहुत अच्छे अधिकारी, कर्मचारी भी होते हैं जो उस कार्यालय की रीढ़ होते हैं।  बैंक भी उससे अछूते नहीं हैं। इस दृष्टि से निम्न सन्दर्भ पठनीय हैं:

‘बैंक ऑफ़ पोलमपुर’ में रोजाना सैकड़ों की संख्या में भ्रष्टाचार की शिकायतें आती थीं। जो प्रबन्धक मध्यस्थों के माध्यम से अथवा सीधे घूस लेकर ॠण देते थे, उनकी शाखा से शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के कारण कोई शिकायत नहीं आती थी। ईमानदार प्रबन्धक के आते ही मध्यस्थ बेरोजगार हो जाते थे और वे प्रबन्धक को स्थानांतरित करवाने के लिए झूठी शिकायतें भिजवाते थे। ऐसे में बैंक का उच्च प्रबन्धन हरदम भ्रमित रहता था कि कौन मैनेजर भ्रष्ट है, कौन ईमानदार। (पृष्ठ 153)

“श्रेष्ठ कार्य करने वाले कर्मचारी चुपचाप अपना काम करते रहते हैं जबकि बहुसंख्यक लफ्फाज कर्मचारी अपनी काल्पनिक कथाएँ सुना-सुनाकर न केवल अपने अधीनस्थों का अमूल्य समय नष्ट करते रहते हैं वरन् अपने वरिष्ठ अधिकारियों को भी बहका कर पदोन्नति पा लेते हैं। ” (पृष्ठ 284)

प्रबंध निदेशक एक फाइव स्टार होटल में स्थित ‘ब्यूटी पार्लर’ में हर चौथे दिन जाती थीं और होटल ब्यूटी पार्लर के बजाय अपने रेस्टोरेन्ट से बैंक ग्राहकों की ‘बिज़नेस मीटिंग’ का बिल बनाकर भेज देता था। (पृष्ठ 269)

लेखक ने उपन्यास के अन्तिम अनुच्छेद 42 में बैंक के पतन के कारणों का प्रश्नोत्तरी के माध्यम से बेबाक वर्णन किया है।

उपन्यास के पृष्ठों 52, 110 व 154 पर कार्टून चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय बन पड़े हैं।

कुल मिलाकर उपन्यासकार श्री वेद माथुर का यह उपन्यास रोचक, हास्य से भरपूर, व्यंग्यपूर्ण, पठनीय एवं संग्रहणीय भी है।

पुस्तक का प्रकाशन उत्कृष्ट है तथा प्रूफ की त्रुटियाँ भी नहीं हैं। यह पुस्तक अमेजॉन और वेबसाइट www.vedmathur.com पर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में उपलब्ध है। वेद माथुर द्वारा लिखित उपन्यास बैंक ऑफ पोलमपुर के प्रकाशक ‘टिनटिन पब्लिकेशन्स , जयपुर हैं। 292 पृष्ठ के पेपरबैक संस्करण की कीमत 375 रुपये रखी गयी है।

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