जयपुरराजनीति

भाजपा मुख्यमंत्री के नाम पर चौंकाती है, आखिर इससे कांग्रेस को क्या सीखना चाहिए..?

बीजेपी ने लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल में जीत हासिल करने के बाद दूसरी बाधा भी पार कर ली है। पार्टी ने तीन राज्यों में बंपर जीत के बाद अब तीनों ही राज्यों में मुख्यमंत्री का नाम भी फाइनल कर दिया। छत्तीसगढ़ में आदिवासी चेहरे विष्णु देव साय को राज्य की कमान सौंपी गई है। वहीं, मध्य प्रदेश में शिवराज की जगह मोहन यादव सीएम की कुर्सी पर बैठेंगे। सबसे अंत में मंगलवार को राजस्थान के सीएम चेहरे से भी पर्दा हटा गया। पार्टी ने राज्य में ब्राह्मण समुदाय के भजन लाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया।
इन सबमें सबसे खास बात रही कि पार्टी ने हर बार की तरह सबको चैंका दिया। इतना ही नहीं, पार्टी ने तीनों नामों की घोषणा में 2024 आम चुनाव के लिए सोशल इंजीनियरिंग का पूरा ध्यान रखा है। खास बात है कि पार्टी ने जिस तरह से शिवराज और वसुंधरा जैसे हैवीवेट उम्मीदवारों को साधा, वह काबिलेतारीफ है। ऐसे में पार्टी ने यह संदेश दिया कि कैसे गुटबाजी पर नकेल कसी जाती है। इसे विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस के लिए कई अहम सबक छिपे हुए हैं।
राज्यों में गुटबाजी पर लगाम
बीजेपी के तीनों राज्यों में सीएम चुनने में जो एक बात सबसे अहम रही, वो थी गुटबाजी। पार्टी ने तीनों राज्यों में भले ही सीएम चुनने में समय लिया लेकिन किसी भी राज्य में गुटबाजी की बात सामने नहीं आई। बीजेपी की यह खासियत रही हैं कि पार्टी का बड़े से बड़ा नेता भी आलाकमान के निर्णय को सहजता से स्वीकार कर लेता है। इस बात का उदाहरण मध्य प्रदेश और राजस्थान से लगाया जा सकता है। इससे दिखता है कि व्यक्ति कितने भी बड़े पद पर क्यों ना हो वह पार्टी से बढ़कर नहीं है।
एमपी, राजस्थान में हेवीवैट नेता चुप बैठे
मध्यप्रदेश की जीत में पीएम मोदी के नाम के साथ ही शिवराज सिंह चैहान के काम को कोई भी नकार नहीं सकता है। लाडली बहना स्कीम से चार बार मुख्यमंत्री रहे शिवराज ने पार्टी को सत्ता में वापसी कराने में अहम भूमिका निभाई। इसके बावजूद पार्टी ने उनको कमान नहीं दी। वहीं, राजस्थान में चुनाव परिणाम आने के बाद वसुंधरा खेमे के विधायकों की बैठक की खबरें आई थीं लेकिन उसका भी खासा प्रभाव नहीं रहा। ऐसा नहीं है कि बीजेपी में गुटबाजी नहीं है। अहम बात है कि पार्टी नेतृत्व पार्टी के भीतर के असंतोष को किस तरह से मैनेज करता है। कांग्रेस कई राज्यों में गुटबाजी से जूझ रही है। इस तरह से कांग्रेस बीजेपी से सबक तो ले ही सकती है।
नए चेहरे से सत्ता विरोधी लहर की काट
बीजेपी की रणनीति का एक अहम हिस्सा है, सत्ता विरोधी लहर की काट। बीजेपी आलाकमान उन राज्यों में, जहां उनकी सरकार है, सत्ता विरोधी लहर की काट के रूप में चेहरे बदलने से बिल्कुल भी गुरेज नहीं करता। फिर चाहे वह राज्य का मुखिया बदलना हो या फिर चुनाव से पहले मौजूदा विधायकों का टिकट काटना। उत्तराखंड से लेकर गुजरात तक कई ऐसे उदाहरण हैं, जहां पार्टी ने सत्ता विरोधी लहर की काट के रूप में चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री बदला हो। इसके उलट कांग्रेस में इस बार छत्तीसगढ़ में चुनाव में जाने से पहले बघेल के नेतृत्व में चुनाव में उतरने को लेकर पार्टी के भीतर दिल्ली से लेकर छत्तीसगढ़ में मतभेद थे। आखिरकार आलाकमान ने जोखिम लेने से गुरेज किया। पार्टी ने भूपेश बघेल के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने का फैसला किया। छत्तीसगढ़ का नतीजा सबके सामने हैं। हालांकि, चुनावी हार में सिर्फ चेहरा ही फैक्टर नहीं है लेकिन अहम फैक्टर जरूर है। बीजेपी ने तो तीनों राज्यों में ही पीएम मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा और शानदार जीत भी हासिल की।
जातिगत समीकरण साध लेती है बीजेपी
2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद पार्टी ने कई राज्यों में भी सरकार बनाई है। इसमें यूपी, गुजरात, उत्तराखंड, के बाद अब राजस्थान और मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भी शामिल हो गए हैं। बीजेपी को पहले सवर्णों की पार्टी माना जाता था। हालांकि, पार्टी अब अपने पारंपरिक पहचान से आगे बढ़ रही है। बीजेपी को अब सिर्फ सवर्णों या वैश्यों की पार्टी नहीं कहा जा सकता है। पार्टी ने ओबीसी के साथ ही दलित और आदिवासी नेताओं को भी अहम भूमिका दी है।
ओबीसी समुदाय को अहम पद दिए
खास बात है कि पार्टी में ओबीसी समुदाय को तो कैबिनेट, केंद्रीय चुनाव समिति के साथ ही अब मुख्यमंत्री की भूमिका दे दी गई है। बिहार और हरियाणा में पार्टी ने ओबीसी वोटरों को साधने के लिए क्रमशः नित्यानंद राय और राव इंद्रजीत सिंह को कैबिनेट में जगह दी हैं। वहीं, हरियाणा से ही सुधा यादव को संगठन में अहम पद हासिल है। भूपेंद्र यादव और अन्नपूर्णा देवी भी कैबिनेट में शामिल हैं। पार्टी ने हंसराज गंगाराम अहीर को नेशनल कमिशन फॉर बैकवर्ड क्लास का चेयरमैन बना रखा है। हाल ही में बीजेपी ने छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री भी दिया है। इस तरह जातिगत समीकरणों को साधना बीजेपी की बड़ी खासियत है। वहीं, कांग्रेस जातिगत समीकरणों के मुद्दे पर भी भगवा दल के मुकाबले पीछे नजर आती है। खास बात है कि कांग्रेस का पारंपरिक ब्राह्मण और दलित वोटर तो उससे खिसका ही है, मुस्लिम वोटर भी उससे धीरे-धीरे दूरी बना रहे हैं।
पार्टी की कुछ नया करने वाली छवि
बीजेपी की छवि में पिछले एक दशक में बड़ा बदलाव आया है। अपने निर्णयों से चैंकाना पार्टी की आदत बन चुकी है। पार्टी की छवि ऐसी बन चुकी है कि लोगों को हमेशा लगता है कि पीएम मोदी के साथ ही केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से कुछ नया किया जाएगा। पार्टी की तरफ से सरकार से लेकर पार्टी में कई ऐसे निर्णय लिए जाते हैं, जो बिल्कुल ही अप्रत्याशित होते हैं। पार्टी की तरफ से सांसदों को विधानसभा चुनाव में उतारने का फैसला इस बार ट्रंप कार्ड साबित हुआ। पार्टी ने 21 सांसदों को इस बार चुनाव मैदान में उतारा था। इनमें से 12 सांसदों को जीत हासिल हुई। छत्तीसगढ़ में तो 4 में से 3 सांसदों ने जीत हासिल की। पार्टी ने राजस्थान में तो सांसद दिया कुमारी को ना सिर्फ विधानसभा चुनाव लड़वाया बल्कि उप मुख्यमंत्री भी बना दिया है। खास बात है कि पार्टी नए चेहरों को आगे करने में बिल्कुल भी गुरेज नहीं करती हैं। पार्टी की अगली पीढ़ी को कमान सौंपने को लेकर सोच बिल्कुल स्पष्ट है।

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